"पत्नी री पीड़ मोबाईल"
सखी अमीणों सायबो, सुणे नी मन री बात।
सोच सोच बिलखूँ घणी,निबळो पड़ियो गात।
जद स्यूं घर में आवियो,रिपु मोबाइल भूत।
बतळायाँ बोले नहीं,रैवे जियां अवधूत।
दिन आखो चिपियो रैवे,इण मोबाइल संग।
झख नी लेवै रात दिन,आछो हुयो अपंग।
कैवो सखी आ वाट्सप, कुण कीदी निरमाण।
छाती छोलण देयदी, म्हारी सौतन जाण।
आँख्यां ताणे उंघतो, आधी आधी रात।
झंझारकै ही जागज्या, झट ले ठूंठो हात।
म्हा स्यूं तो बतळे नहीं,फेसबूक पे गल्ल।
मुळक मुळक गल्लां करै,कर मोबायल झल्ल्।
टुकड़ो तिल खावै नहीं,लाईक री घण भूख।
चढ़ चश्मो आंधा हुआ,डोभा लाग्या दूख।
रैण दिवस पड़ियो रैवे,करै न कोई काम।
मोबाईल हथ में रवै,भोर दुपहरी शाम।
हाथ मगज़ दुबळा हुया, नैण हुया अणसूझ।
सखी तमीणे सायबे ने,रस्तो कोई बूझ।
पिंड छूटे इण पाप स्यूं,करै'ज कोई काम।
करै राजरी नौकरी,सिंझ्या भजले राम।
सखी राह कोई बता,किम छोडाउं लार।
मोबाइल इण सौत ने,केहि बिध काढुं बार।
हाल रैयो जै कैई दिनाँ,(तो)उठसी म्हारौ चित्त।
का मोबाइल रैइसी,का बंदी रहसी इत्त।
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