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बुधवार, 17 अगस्त 2016

जैसलमेर के शासक तथा इनका संक्षिप्त इतिहास

Maharawal Shri Brijraj Singh Ji Bhati of Jaisalmer with Maharani Sahib Raseshwari Rajya Laxmi Ji & younger son Maharajkumar Janmajeya Singhji

जैसलमेर के शासक तथा इनका संक्षिप्त इतिहास
जैसलमेर राज्य की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के आरंभ में ११७८ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल-जैसल के द्वारा किया गया। भाटी मूलत: इस प्रदेश के निवासी नहीं थे। यह अपनी जाति की उत्पत्ति मथुरा व द्वारिका के यदुवंशी इतिहास पुरुष कृष्ण से मानती है। कृष्ण के उपरांत द्वारिका के जलमग्न होने के कारण कुछ बचे हुए यदु लोग जाबुलिस्तान, गजनी, काबुल व लाहौर के आस-पास के क्षेत्रों में फैल गए थे। कहाँ इन लोगों ने बाहुबल से अच्छी ख्याति अर्जित की थी, परंतु मद्य एशिया से आने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के सामने ये ज्यादा नहीं ठहर सके व लाहौर होते हुए पंजाब की ओर अग्रसर होते हुए भटनेर नामक स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध मुल्तान की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तपोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए थार के रेगिस्तान स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भूटा, तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। वस्तुत: भाटियों के इतिहास का यह संपूर्ण काल सत्ता के लिए संघर्ष का काल नहीं था वरन अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष था, जिसमें ये लोग सफल हो गए।
सन ११७५ ई. के लगभग मोहम्मद गौरी के निचले सिंध व उससे लगे हुए लोद्रवा पर आक्रमण के कारण इसका पतन हो गया व राजसत्ता रावल जैसल के हाथ में आ गई जिसने शीघ्र उचित स्थान देकर सन् ११७८ ई. के लगभग त्रिकूट नाम के पहाड़ी पर अपनी नई राजधानी स्थापित की जो उसके नाम से जैसल-मेरु - जैसलमेर कहलाई।
जैसलमेर राज्य की स्थापना भारत में सल्तनत काल के प्रारंभिक वर्षों में हुई थी। मध्य एशिया के बर्बर लुटेरे इस्लाम का परचम लिए भारत के उत्तरी पश्चिम सीमाओं से लगातार प्रवेश कर भारत में छा जाने के लिए सदैव प्रयत्नशील थे। इस विषय परिस्थितियों में इस राज्य ने अपना शैशव देखा व अपने पूर्ण यौवन के प्राप्त करने के पूर्व ही दो बार प्रथम अलउद्दीन खिलजी व द्वितीय मुहम्मद बिन तुगलक की शाही सेना का
कोप भाजन बनना पड़ा। सन् १३०८ के लगभग दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की शाही सेना द्वारा यहाँ आक्रमण किया गया व राज्य की सीमाओं में प्रवेशकर दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया। यहाँ के राजपूतों ने पारंपरिक ढंग से युद्ध लड़ा। जिसके फलस्वरुप दुर्ग में एकत्र सामग्री के आधार पर यह घेरा लगभग ६ वर्षों तक रहा। इसी घेरे की अवधि में रावल जैतसिंह का देहांत हो गया तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र मूलराज जैसलमेर के सिंहासन पर बैठा। मूलराज के छोटे भाई रत्नसिंह ने युद्ध की बागडोर अपने हाथ में लेकर अन्तत: खाद्य सामग्री को समाप्त होते देख युद्ध करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित समस्त स्रियों द्वारा रात्रि को अग्नि प्रज्वलित कर अपने सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर कर लिया। प्रात: काल में समस्त पुरुष दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े। जैसा कि स्पष्ट था कि दीर्घ कालीन घेरे के कारण रसद न युद्ध सामग्री विहीन दुर्बल थोड़े से योद्धा, शाही फौज जिसकी संख्या काफी अधिक थी तथा खुले में दोनों ने कारण ताजा दम तथा हर प्रकार के रसद तथा सामग्री से युक्त थी, के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके शीघ्र ही सभी वीरगति को प्राप्त हो गए।
तत्कालीन योद्धाओं द्वारा न तो कोई युद्ध नीति बनाई जाती थी, न नवीनतम युद्ध तरीकों व हथियारों को अपनाया जाता था, सबसे बड़ी कमी यह थी कि राजा के पास कोई नियमित एवं प्रशिक्षित सेना भी नहीं होती थी। जब शत्रु बिल्कुल सिर पर आ जाता था तो ये राजपूत राजा अपनी प्रजा को युद्ध का आह्मवाहन कर युद्ध में झोंक देते थे व स्वयं वीरगति को प्राप्त कर आम लोगों को गाजर-मूली की तरह काटने के लिए बर्बर व युद्ध प्रिया तुर्कों के सामने जिन्हें अनगिनत युद्धों का अनुभव होता था, निरीह छोड़े देते थे। इस तरह के युद्धों का परिणाम तो युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व ही घोषित होता था।
सल्तनत काल में द्वितीय आक्रमण मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५-१३५१ ई.) के शासन काल में हुआ था, इस समय यहाँ का शासक रावल दूदा (१३१९-१३३१ ई.) था, जो स्वयं विकट योद्धा था तथा जिसके मन में पूर्व युद्ध में जैसलमेर से दूर होने के कारण वीरगति न पाने का दु:ख था, वह भी मूलराज तथा रत्नसिंह की तरह अपनी कीर्ति को अमर बनाना चाहता था। फलस्वरुप उसकी सैनिक टुकड़ियों ने शाही सैनिक ठिकानों पर छुटपुट लूट मार करना प्रारंभ कर दिया। इन सभी कारणों से दण्ड देने के लिए एक बार पुन: शाही सेना जैसलमेर की ओर अग्रसर हुई। भाटियों द्वारा पुन: उसी युद्ध नीति का पालन करते हुए अपनी प्रजा को शत्रुओं के सामने निरीह छोड़कर, रसद सामग्री एकत्र करके दुर्ग के द्वार बंद करके अंदर बैठ गए। शाही सैनिक टुकड़ी द्वारा राज्य की सीमा में प्रवेशकर समस्त गाँवों में लूटपाट करते हुए पुन: दुर्ग के चारों ओर डेरा डाल दिया। यह घेरा भी एक लंबी अवधि तक चला। अंतत: स्रियों ने एक बार पुन: जौहर किया एवं रावल दूदा अपने साथियों सहित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। जैसलमेर दुर्ग और उसकी प्रजा सहित संपूर्ण-क्षेत्र वीरान हो गया।
परंतु भाटियों की जीवनता एवं अपनी भूमि से अगाध स्नेह ने जैसलमेर को वीरान तथा पराधीन नहीं रहने दिया। मात्र १२ वर्ष की अवधि के उपरांत रावल घड़सी ने पुन: अपनी राजधानी बनाकर नए सिरे से दुर्ग, तड़ाग आदि निर्माण कर श्रीसंपन्न किया। जो सल्तनत काल के अंत तक निर्बाध रुपेण वंश दर वंश उन्नति करता रहा। जैसलमेर राज्य ने दो बार सल्तनत के निरंतर हमलों से ध्वस्त अपने वर्च को बनाए रखा।
मुगल काल के आरंभ में जैसलमेर एक स्वतंत्र राज्य था। जैसलमेर मुगलकालीन प्रारंभिक शासकों बाबर तथा हुँमायू के शासन तक एक स्वतंत्र राज्य के रुप में रहा। जब हुँमायू शेरशाह सूरी से हारकर निर्वासित अवस्था में जैसलमेर के मार्ग से रावमाल देव से सहायता की याचना हेतु जोधपुर गया तो जैसलमेर
के भट्टी शासकों ने उसे शरणागत समझकर अपने राज्य से शांति पूर्ण गु जाने दिया। अकबर के बादशाह बनने के उपरांत उसकी राजपूत नीति में व्यापक परिवर्तन आया जिसकी परणिति मुगल-राजपूत विवाह में हुई। सन् १५७० ई. में जब अकबर ने नागौर में मुकाम किया तो वहाँ पर जयपुर के राजा भगवानदास के माध्यम से बीकानेर और जैसलमेर दोनों को संधि के प्रस्ताव भेजे गए। जैसलमेर शासक रावल हरिराज ने संधि प्रस्ताव स्वीकार कर अपनी पुत्री नाथीबाई के साथ अकबर के विवाह की स्वीकृति प्रदान कर राजनैतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। रावल हरिराज का छोटा पुत्र बादशाह दिल्ली दरबार में राज्य के प्रतिनिधि के रुप में रहने लगा। अकबर द्वारा उस फैलादी का परगना जागीर के रुप में प्रदान की गई। भाटी-मुगल संबंध समय के साथ-साथ और मजबूत होते चले गए। शहजादा सलीम को हरिराज के पुत्र भीम की पुत्री ब्याही गई जिसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया गया था। स्वयं जहाँगीर ने अपनी जीवनी में लिखा है - 'रावल भीम एक पद और प्रभावी व्यक्ति था, जब उसकी मृत्यु हुई थी तो उसका दो माह का पुत्र था, जो अधिक जीवित नहीं रहा। जब मैं राजकुमार था तब भीम की कन्या का विवाह मेरे साथ हुआ और मैने उसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया था। यह घराना सदैव से हमारा वफादार रहा है इसलिए उनसे संधि की गई।'
मुगलों से संधि एवं दरबार में अपने प्रभाव का पूरा-पूरा लाभ यहाँ के शासकों ने अपने राज्य की भलाई के लिए उठाया तथा अपनी राज्य की सीमाओं को विस्तृत एवं सुदृढ़ किया। राज्य की सीमाएँ पश्चिम में सिंध नदी व उत्तर-पश्चिम में मुल्तान की सीमाओं तक विस्तृत हो गई। मुल्तान इस भाग के उपजाऊ क्षेत्र होने के कारण राज्य की समृद्धि में शनै:शनै: वृद्धि होने लगी। शासकों की व्यक्तिगत रुची एवं राज्य में शांति स्थापित होने के कारण तथा जैन आचार्यों के प्रति भाटी शासकों का सदैव आदर भाव के फलस्वरुप यहाँ कई बार जैन संघ का आर्याजन हुआ। राज्य की स्थिति ने कई जातियों को यहाँ आकर बसने को प्रोत्साहित किया फलस्वरुप ओसवाल, पालीवाल तथा महेश्वरी लोग राज्य में आकर बसे व राज्य की वाणिज्यिक समृद्धि में अपना योगदान दिया।
भाटी मुगल मैत्री संबंध मुगल बादशाह अकबर द्वितीय तक यथावत बने रहे व भाटी इस क्षेत्र में एक स्वतंत्र शासक के रुप में सत्ता का भोग करते रहे। मुगलों से मैत्री संबंध स्थापित कर राज्य ने प्रथम बार बाहर की दुनिया में कदम रखा। राज्य के शासक, राजकुमार अन्य सामन्तगण, साहित्यकार, कवि आदि समय-समय पर दिल्ली दरबार में आते-जाते रहते थे। मुगल दरबार इस समय संस्कृति, सभ्यता तथा अपने वैभव के लिए संपूर्ण विश्व में विख्यात हो चुका था। इस दरबार में पूरे भारत के गुणीजन एकत्र होकर बादशाह के समक्ष अपनी-अपनी योग्यता का प्रदर्शन किया करते थे। इन समस्त क्रियाकलापों का जैसलमेर की सभ्यता, संस्कृति, प्राशासनिक सुधार, सामाजिक व्यवस्था, निर्माणकला, चित्रकला एवं सैन्य संगठन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
मुगल सत्ता के क्षीण होते-होते कई स्थानीय शासक शक्तिशाली होते चले गए। जिनमें कई मुगलों के गवर्नर थे, जिन्होंने केन्द्र के कमजोर होने के स्थिति में स्वतंत्र शासक के रुप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। जैसलमेर से लगे हुए सिंध व मुल्तान प्रांत में मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने से कई राज्यों का जन्म हुआ, सिंध में मीरपुर तथा बहावलपुर प्रमुख थे। इन राज्यों ने जैसलमेर राज्य के सिंध से लगे हुए विशाल भू-भाग को अपने राज्य में शामिल कर लिया था।
अन्य पड़ोसी राज्य जोधपुर, बीकानेर ने भी जैसलमेर राज्य के कमजोर शासकों के काल में समीपवर्ती प्रदेशों में हमला संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार जैसलमेर राज्य की सीमाएँ निरंतर कम होती चली गई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन के समय जैसलमेर का क्षेत्रफल मात्र १६ हजार वर्गमील भर रह
गया था। यहाँ यह भी वर्णन योग्य है कि मुगलों के लगभग ३०० वर्षों के लंबे शासन में जैसलमेर पर एक ही राजवंश के शासकों ने शासन किया तथा एक ही वंश के दीवानों ने प्रशासन भार संभालते हुए उस संझावत के काल में राज्य को सुरक्षित बनाए रखा।
जैसलमेर राज्य में दो पदों का उल्लेख प्रारंभ से प्राप्त होता है, जिसमें प्रथम पद दीवान तथा द्वितीय पद प्रधान का था। जैसलमेर के दीवान पद पर पिछले लगभग एक हजार वर्षों से एक ही वंश मेहता (महेश्वरी) के व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता रहा है। प्रधान के पद पर प्रभावशाली गुट के नेता को राजा के द्वारा नियुक्त किया जाता था। प्रधान का पद राजा के राजनैतिक वा सामरिक सलाहकार के रुप में होता था, युद्ध स्थिति होने पर प्रधान, सेनापति का कार्य संचालन भी करते थे। प्रधान के पदों पर पाहू और सोढ़ा वंश के लोगों का वर्च सदैव बना रहा था।
मुगल काल में जैसलमेर के शासकों का संबंध मुगल बादशाहों से काफी अच्छा रहा तथा यहाँ के शासकों द्वारा भी मनसबदारी प्रथा का अनुसरण कर यहाँ के सामंतों का वर्गीकरण करना प्रारंभ किया। प्रथा वर्ग में 'जीवणी' व 'डावी' मिसल की स्थापना की गई व दूसरे वर्ग में 'चार सिरै उमराव' अथवा 'जैसाणे रा थंब' नामक पदवी से शोभित सामंत रखे गए। मुगल दरबार की भांति यहाँ के दरबार में सामन्तों के पद एवं महत्व के अनुसार बैठने व खड़े रहने की परंपरा का प्रारंभ किया। राज्य की भूमि वर्गीकरण भी जागीर, माफी तथा खालसा आदि में किया गया। माफी की भूमि को छोड़कर अन्य श्रेणियां राजा की इच्छानुसार नर्धारित की जाती थी। सामंतों को निर्धारित सैनिक रखने की अनुमति प्रदान की गई। संकट के समय में ये सामन्त अपने सैन्य बल सहित राजा की सहायता करते थे। ये सामंत अपने-अपने क्षेत्र की सुरक्षा करने तथा निर्धारित राज राज्य को देने हेतु वचनबद्ध भी होते थे।
ब्रिटिश शासन से पूर्व तक शासक ही राज्य का सर्वोच्च न्यायाधिस होता था। अधिकांश विवादों का जाति समूहों की पंचायते ही निबटा देती थी। बहुत कम विवाद पंचायतों के ऊपर राजकीय अधिकारी, हाकिम, किलेदार या दीवान तक पहुँचते थे। मृत्युदंड देने का अधिकार मात्र राजा को ही था। राज्य में कोई लिखित कानून का उल्लेख नही है। परंपराएँ एवं स्वविवेक ही कानून एवं निर्णयों का प्रमुख आधार होती थी।
भू-राज के रुप में किसान की अपनी उपज का पाँचवाँ भाग से लेकर सातवें भाग तक लिए जाने की प्रथा राज्य में थी। लगान के रुप में जो अनाज प्राप्त होता था उसे उसी समय वणिकों को बेचकर नकद प्राप्त धनराशि राजकोष में जमा होती थी। राज्य का लगभग पूरा भू-भाग रेतीला या पथरीला है एवं यहाँ वर्षा भी बहुत कम होती है। अत: राज्य को भू-राज से बहुत कम आय होती थी तथा यहाँ के शासकों तथा जनसाधारण का जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण था।
Jaisalmer is located in the midst of the Thar Desert, on the western fringes of India's Rajasthan state, where temperatures can reach close to 50 degrees celsius in summer. The fortified city was founded in 1156 by Rawal Jaisal, whose descendants continue to reside in the main palace. All through the turbulent centuries of wars, drought, and relentless heat, the city has withstood all challenges partly from its unique design and architecture. The builders of Jaisalmer include the Bhati Rajput kings and nobles, the Jain merchants, and the common people from many other diverse communities.
The palaces, temples, and havelis are replete with beautifully carved jalis and jharokhas, filigree details, mosaics and blue tiles. The balconies jut out over the narrow streets to shield them from the harsh sun, and to draw in the breeze. The entire design of the ancient city is meant for keeping the inhabitants cool. The wooden ceilings of these buildings are coated with a local material made from limestone called muram, which keeps away the heat and prevents water seepage.
Jaisalmer also has many lakes and gardens and a slow meandering river named Kakni runs through the city, mostly dry in the summer, but providing a good location for many other towns and temples. Kakni loses itself in the sands after some distance.

देश भगती री जगमगती जोतःक्रांति रा जोरावर

(महान क्रांतिकारी केशरीसिंहजी बारठ री पुण्यतिथि माथै विशेष)

देश भगती री जगमगती जोतःक्रांति रा जोरावर-गिरधरदान रतनू दासोड़ी
राजस्थानी भाषा रै साहित्यिक विगसाव सारु पद्य सिरजण सूं बती जरूरत गद्य रो गजरो गूंथण री है।आ बात आजरी युवा पीढी सूं घणी आपांरी पुराणी पीढी रा विद्वान सावल़सर जाणै।बै जाणै कै जितै तक आपांरी भाषा रो गद्य लेखन समृद्ध नीं होवैला जितै तक आपां भारतीय साहित्य रै समकालीन लेखन री समवड़ता नीं कर सकांला।इणी बात नैं दीठगत राखर कई विद्वानां कहाणी,निबंध अर उपन्यास लेखन कानी आपरी मेधा रो उपयोग करण अर गद्य भंडार भरण सारु ठावको काम कियो अर कर रैया है।हालांकि आ बात कैवण में कोई संकोच नीं है कै दूजी गद्य विधावां री बात छोड ई दां तो ई  उपन्यास अर नाटक ई अजै तक मुठ्ठी क भर अर आंगल़ियां माथै गिणावै जिताक ई है।ओ ई कारण है कै राजस्थानी रा कई वरिष्ठ विद्वान गद्य सिरजण रै सीगै आपरी साख साहित्यिक जगत में थापी है।ऐड़ो ई एक सिरै नाम है डॉ गिरजाशंकर शर्मा ऱो।
डॉ गिरजाश़करजी मूलतः तो इतिहासकार है पण साहित्य रै क्षेत्र में शोध,संपादन,कविता,कहाणी अर निबंध रै पेटै आपरी कलम रो कमाल बतावता रैया है।'इतिहास रो साच' इणां री चावी अर चर्चित पोथी है।इणी कड़ी मे इणां रो पैलो उपन्यास आयो है 'क्रांति रा जोरावर'।
देश री आजादी री अलख जगावणियां अर भसम रमावणियां री श्रृंखला में जिण राजस्थान रै रांघड़ां आपरै तन- मन -धन, वतन रै नामै करर कांधै खांफण घाल राटक बजाई उणां मांय सूं केई दाटकां रो देश भगती सूं दीपतै इतिहास नैं बिनां लूण मिर्च रै आम पाठक रै साम्हीं राखण री सफल कोशिश करी है।
उपन्यास री कथावस्तु राजस्थान रै क्रांतिकारियां यथा दामोदरदास राठी,केशरीसिंह बारठ,गोपालसिंह खरवा,जोरावरसिंह बारठ,प्रतापसिंह बारठ अर विजयसिंह सैति केई सपूतां रै अंजसजोग त्याग अर मातृभोम सूं अनुराग रै आसै -पासै बैवै।उपन्यास री कथा मौलिकता सूं मंडित है।इण में नीं तो कल्पना सारु कल़ाप है अर संभावना री जुगत।नीं रोचकता री रचना है नीं रंजकता री भांजघड़।कथा ऐतिहासिक तथ्यां अर प्रमाणिक संदर्भां रै सारै आपरो विस्तार लेती सपाट चालै।कथा नैं लेखक सहज भाव सूं लिखतो निगै आवै न कि किणी दोघड़ चिंता में।ओ ई कारण है कै कथा में रंजकता कै रोचकता रो लावलेस ई नीं है।आ कथा तो देश भगती री आभा सूं आलोकित है,जिणमें ऐतिहासिकता अर प्रमाणिकता रो ई कथानक है। लेखक प्रमाणिक तथ्यां माथै आ सिद्ध करी है कै जोधपुर रै धूर्त रामस्नेही महंत प्यारैराम, जिकै आपरी चालाकियां अर छागटाई रै पाण कई धर्म भीरु भगतां नैं ठगर मोकल़ी मता भेल़ी कर राखी ही,जिणरै विषय में क्रांतिकारियां नैं सावखरी जाणकारी ही।ओ ई कारण हो कै क्रांतिकारियां उणनैं पोटाय कोटै बुलायो अर मार नाखियो।उणरै रामद्वारै सूं मिल़ियो धन पंजाब रै क्रांतिकारी बाबा गुरदीन्तसिंह नै दे दियो गयो- "क्रांतिकारियां महंत रै खजानै सूं धन निकाल़ चुक्या हा। ओ धन बांनै पंजाब रै क्रांतिकारी बाबा गुरदीन्तसिंह नैं कामागातामारू योजना नै सफल़ करण सारु देवणो हो,जिको उणनै दे दियो गयो।" जैड़ो कै आपां सगल़ां जाणां कै उपन्यास री कथा वस्तु विन्यास सूं बतो महताऊ तत्व है पात्र अर चरित्र चित्रण ।क्यूंकै पात्रां रै क्रिया कल़ापां सूं ई कथा वस्तु विस्तार पावै पण लेखक ऐड़ी किणी औपचारिकता में नीं पड़र या किणी पात्र विशेष रै जंजाल़ में नीं अल़ूझर सहज भाव सूं सगल़ै पात्रां नैं विशेष मानर उणां रै जथाजोग चरित्र री चंद्रिका चमकावण रा जाझा जतन करिया है ।पण म्हनैं लागै कै लेखक जोरावरसिंह बारठ रै अदम्य साहस,कड़पाण,अडरता,जुगती अर काम रै प्रति कर्मठता सूं शायद ज्यादा प्रभावित है तो साथै ई दामोदर दास राठी रै त्याग,समर्पण,देश भगती री अनुरक्ति सूं सश्रद्ध है तो इणीगत गोपाल़सिंह खरवा री वीरता,राजपूतीपणो,निडरता ,ज्ञान गरिमा मातृभोम अर कोम रै कल्याण सारु कीं करण रै जज्बे सूं प्रभावित।ओ  ई कारण है कै सगल़ै क्रांतिकारियां नैं करामाती बतावतां थकां ई इण तीनां नैं अजेय बताया है -"क्रांतिकारी जोरावरसिंह  बारठ भारत री अंगरेज सरकार नैं जीवन भर छकावतो सहादत प्राप्त करण में सफल़ रैयो।"।उपन्यास रा कथोपकथन जे पात्रानुकूल नीं होवै तो गुड़ -गोबर एक हो जावै।इण पेटै लेखक पूरै रूप सूं सजग है ।संवादां में सरलता,सहजता,अर स्पष्टता होवणी  चाहीजै जिकी पूरसल रूप सूं देखी जा सकै-"दीवान पोनास्कर खरवा ठाकुर नै पूछ्यो  "रावजी ,कांई इच्छा है?" तो ठाकुर उणनै उथल़ो दियो, "जिण प्रतिष्ठा वास्तै टॉडगढ छोडर जंगल़ां में भटक रैयो ह़ूं ,उणरी रक्षा मरतै दम तक करसूं।"
उपन्यास पूरो तत्कालीन वातावरण सूं सराबोर लागै।लेखक नै उण बगत रो सावखरो सम्यक ज्ञान है ।कोई मनघड़त कै हाथपाई कै खुद उपाई बात रो भेल़ नीं है।उपन्यास री भाषा ठेठ,ठोस अर ठिमरता वाल़ी है, जिणमें  कहावतां री कोरणी अर मुहावरां रो मेल़ ठावको है तो साथै ई सहजता ,संप्रेषणीयता,स्पष्टता,अर सुबोधता है।लेखक रो भाषायी ज्ञान सरावणजोग है ओ ई कारण है कै पूरी कथा में भाषा भावानुसरण है।
लेखक रो उपन्यास लिखण रो उद्देश्य तो आपांनैं सहज ई समझ में आवै ।आजरा मोटियार समष्ठिवाद कानी नीं खंचर व्यष्ठिवाद कानी आकर्षित होयर त्याग,सहयोग ,समर्पण,आदर्श अर आपांरै बडेरां रै थापित जीवन मूल्यां सूं विमुखता धारण करर एकलखोरड़ा अर सुविधाभोगी होय रैया है,उणांमें त्याग सहनशीलता ,संवेदनशीलता अर देशभगती रा कीं कणूका ऊगै,पनपै अर पांगरै।ओ ईज लेखक रो केवल अर केवल उद्देश्य है।इण उद्देश्य री प्राप्ति में लेखक पूरो सफल रैयो है।
उपन्यास में महान क्रांतिकारियां नैं साचै अर सहज भाव सूं सबदांजल़ि दिरीजी है।उपन्यास पढणजोग ई नीं संग्रैजोग ई है।आशा है पाठक इण उपन्यास नै पूरो आवकारो देतां थकां क्रांतिकारियां सूं संबंधित सही तथ्यां सूं ई परिचित होवैला।
पोथी रो नाम -क्रा़ति रा जोरावर
लेखक-डॉ गिरजाशंकर शर्मा
मोल-150
प्रकाशक -पुस्तक मंदिर ,जुबली नागरी भंडार ,बीकानेर
गिरधरदान रतनू दासोड़ी
प्रा.रा.सा.सं.सं.दासोड़ी,बीकानेर।

चूडीया

एक बार लडका अपनी घर वाली को लाने गया ।

तो उसे अपने ससूर के पास सोना पडा ।

उसको रात को चूडीया बजने की अवाज सुनाइ पडी ।

उसे लगा की मेरी घर वाली आ रही है ।

तो उसने उचक कर देखा तो कोई  नही था,,
तो वो वापस सो गया ।

दोबारा कुछ देर बाद वही अवाज आइ
फिर उचक के देखा ,,,पर कोई नी था

दो तीन बार ऐसा हुवा
तो उसके पास सोये ससूर ने कहा :-

सोजा  गडुरा

भैस की सांकल बाज री है।।।।

शनिवार, 13 अगस्त 2016

एक शिक्षक....

एक शिक्षक.....
हूँ लड़्यो घणो हूँ सह्यो घणो,
शाला रो मान बचावण नै।
हूँ पाछ नहीं राखी कुछ भी,
शाला परिणाम बढ़ावण नै।

जद स्टाफ पैटरण याद करुं,
पद खाली आज नजर आवै।
कक्षावां ठाली बैठी है,
बिन शिक्षक कौन पढ़ा पावै।

पड़ग्या सूना कान मेरा,
कमरा मा आती सीटी से।
शिक्षक रो धर्म कियां निभसी,
सब चौपट होग्या नीति से।

एकीकरण  आदर्शीकरण,
मूंडा में ज्यूँ रोटी ताती।
कलमां री स्याही चीख पड़ी,
मत लिख कौन पढ़ै पाती।

पण शिक्षक रो हिवड़ो बोल उठ्यो,
शाला री पाग पगां में है।
सारे जग रो हूँ  कर्ता धर्ता,
ब्रह्मा रो खून रगा  में  है।

हूँ  नेट भरुं , अपलोड करुं,
डाकां ई मेल आबाद रहै।
हूँ घोर अभावां में भटकूँ,
पर शाला दरपण याद रहै।

शिक्षक री कीमत क्षीण भई,
इक हाथ बजातां ताली नै।
शिक्षक री हाथल टूट गई,
अब बाग हँसे खुद माली नै।
अब बाग हँसे खुद माली नै

कलमां री ताकत रै आगै

अबार रै कवियां री कलम में कितरी ताकत है ?इणरै अनुमान रो दाखलो अजै सुणण में नीं आयो पण आपांरी आगली अर इणां सूं पैलड़ी पीढी रै कवियां री कलम में कितरी ताकत ही इणरा फगत तीन दाखला आपनै देय रैयो.हूं। 1 महाकवि पृथ्वीराजजी राठौड 'पीथल' 2कवि भूषण सूर्यमल्लजी मीसण 3,कवि पुंगव केशरीसिंहजी बारठ री वाणी रै पाणी सूं आप परिचित हो -
कलमां री ताकत रै आगै-गिरधरदान रतनू दासोड़ी
कलमां री ताकत रै आगै,
पड़गी ही तरवारां काची।
इतियास बदल़ियो आखरियां,
भरर्यो है हामल़ जग साची!
वनखंडां थकग्यो नाहर बो,
बगतर जद.ढीलो पड़गयो।
आडावल़ अडर रुखाल़णियो,
खावणियो भाला लड़थड़ग्यो।
सुखवाल़ी रातां रै सपनां ,
लागा जद पातल नैं आवण!
भूरड़ै भाखर री भुरजां,
लागी जद बांठां री ताटी अल़खावण!
काकरिया कामण रै गडता,
फूलां रै कांटां बै चुबता।
जद मेवाड़ी राण़ डगमगियो,
दुखड़ा बै अंतस में चुबता।
स्याल़ां रै हाथां आजादी,
नाहर जद बेचण री धारी!
दिल्ली नै मेलण परवानो,
लीनी उण कलमां मन भारी!!
पीथल उण जांगल़ में सुणियो,
थाहर में नाहर लुक जासी!
माथो इकलिंग रै पायक रो,
अकबर रै आगै झुक जासी!!
आखर जद पीथल रा पूगा,
पाखर उण घोड़ां पर घाती।
भाखरियां सारु बो लड़ियो,
सुणियां ई फूलै.है छाती।
पीथल नै पातल अमर है,
वाणी बा अंतस में राची।
कलमां री ताकत.....1
मतवाल़ा भूल्या गौरव नैं,
घट -घट सूं रजवट रीत गयो।
हाथां में प्याला दारू रा,
बातां में जोबन बीत गयो।
छापल़िया सूरा धरती रा,
दापल़िया हेठा बैठ गया।
टोपी रा मालक बै आया,
जोपी नै आसण बैठ गया!!
लाठी री ताकत सूं लाटां तो,
लांठां नैं छेकड़ फोर लिया।
मरणै री हाटां बंद होई,
टाटां जिम गोरां टोर लिया।
घर-घर में लुकिया मूंछाल़ा,
धर रा जो रखवाल़ा होता!
दर -दर रा होयग्या घण दाटक,
झुरझुरियै महलां नैं जोता!!
जामणियां देती फिटकारा,
कसमसती कामणियां ज्यांरी।
हीणप सूं बैठ्या हार्योड़ा,
उठती नीं आंखड़ियां वांरी!
बुझतोड़ै दीपक घी घालण,
रीत्योड़ो जोस जगावण नैं।
सूरजमल रचिया आखरिया,
अंतस सूं बीह भगावण नैं।
वीरां रो भूसण बिन दूसण,
मीसण री सतसईया साची।
कलमां री ताकत....2
फतमल नैं पूगो संदेसो,
दिल्ली में भूपत सह जुड़सी!
दरबार लगैलो करजन ऱो,
आणो तो राणै नैं पड़सी!!
गोरां रै हाथां राणै नैं,
कूरब बो तारै रो मिलसी!
भूरां रै रचियै इण तोतक,
कुर्सी बा दिल्ली री खिलसी।
पुरखां री मेटण मरजादा,
करजन सूं भेटण राण बुवो!
गफलत में गाहड़ रो गाडो,
दिल्ली में हाजर आण हुवो!
केहर रै कानां भणक पड़ी,
मरजादा मिलसी माटी में!
हिंदवाणी सूरज साचाणी,
आथमसी हल़्दीघाटी में!!
रीतां बै लुपसी रजवट री,
लागोड़ो काजल़ नीं लुकसी!
धुपसी बा कीरत मेवाड़ी,
फिरंग्यां नैं फतमल यूं झुकसी!!
चूंगटिया लिखबा चेतण रा,
गूंजी जद वाणी बारठ री!
भणकार पड़ी जद राणै नैं,
खुलगी बै आंख्यां झट भट री!!
चाली जद कलमां केहर री,
हल़वल़ बा करजन रै माची!
कलमां री ताकत..3
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

छोरो दांतलो

चुहिया सहेली से- यार कल हाथी के घर से रिश्ता आया !
सहेली- तूने हाँ कर दी??
चुहिया- नहीँ
सहेली- क्यूँ
चुहिया- यार छोरो दांतलो हे

बुधवार, 10 अगस्त 2016

मत देख मिनख री रीत पंछीड़ा

मत देख मिनख री रीत पंछीड़ा-गिरधरदान रतनू दासोड़ी
मत देख मिनख री नीत पंछीड़ा,
गीत रीत रा गायां जा!
आयां जा मन मेल़ू तूं,
साचोड़ी देख सुणायां जा!!
आवै है ग्रहण आजादी पर,
ऊंगाणा बैठा गादी पर।
गांधी री काती हाथां.सूं,
ऐ कलंक लगावै खादी पर।
वोटां पर जाल़ बिछायोड़ा,
थिरचक है कुड़का ठायोड़ा।
इसड़ो ऐ नांखै देख चुग्गो,
फस ज्यावै मानव डायोड़ा।
नुगरा बल़ -छल़ में नामी है,
हरमेस लूट रा हामी है।
कुर्सी री राखै देख निगै,
ज्यूं -त्यूं ई राखै थामी है।
विध-विध रा न्यारा वेस देख,
आदत रा सगल़ा है ज एक है।
तूं आवै क्यूं झांसां आ़रां में?
ऐ देवै अंगूठो गल़ै टेक।
तूं छोड आस सागै री,
आगै री डांडी जायां जा।
साचोड़ी सदा सुणायां जा!
मिनख हुवो घर पर अणमातो,
खोल रैयो फल़सो.संकुचातो।
घट गई मिनख री जग कीमत!
जद समर समर मनड़ै पछतातो।
मिनखां री माया रा भाग देख,
मनरो नीं लाधै थाग देख।
गिंडक रो मानव रै नेणां,
मानव सूं बधतो आघ देख।
हालत ऐ देख बण्या है कैड़ा,
नीं आवै नेही तो नैड़ा!
मानव सूं मानव चमक रैयो है,
माल चरै है देख गघेड़ा!
मानै तूं जितरा ई मोटा!
जाणै तूं उतरा ई खोटा!!
इण में नीं झूठ रति भर है,
अपणायत राखै दिल छोटा।
तूं अणभै आभै रो वासी!
वनवासी साच बतायां जा।
साचोड़ी सदा सुणायां जा।।2
घर-घर में बैठा दुरजोधन,
औरत किम शील रुखाल़ै धन!
पूगै नीं हाथ वंसीधर रो जद,
कुण ढकै उघड़तो द्रोपद तन?
ऐ कुरवंस्यां रा रचिया जाल़ जठै,
धारै कुण भीखम नैं आज उठै।
जठै धरम धीठाई धारै जद
बल़हीणा बणज्या वीर बठै।।
बेबस सांवरियो थाक गयो,
माठै मन ओछी ताक गयो।
खुस गयो पीताबंर ई उणरो,
लाजा़ं मर रथड़ो हाक गयो।
तोड़ै है कानूड़ो दीह जठी,!
आवै कुण पूरण चीर उठी?
आंधो कानून राज ई आंधो
जावै कर फरियाद कठी?
ललचाया लालच में बैठा,
चांच खोल चेतायां जा।
साचोड़ी देख सुणायां जा।।3
चोरां री जाजम बिछी जठै!
उणपर तो साचो नाय खटै।
जठै लूट खसोटां जारी है,
कुण करै त्याग रो मोल उठै?
मांटीपण रो अब मोल नहीं!
अंतस में देख इलोल़ नहीं!
पाल़ण सारु पैला ज्यूं, ऐ
मरद  कहै अब बोल नहीं!!
नैणां में ज्यांरै लाज नहीं,
ठगपण सूं आवै बाज नहीं।
मर गयो मिनखपण उर आंरै,
धूरतपण आडी पाज नहीं।
निस दिवस राम रो नाम रटै!
उण ओट गरीबां मार गिटै!!
स्वारथ में रंगिया स्याल़ देख,
ऐ भैंस काटलै सल़ू सटै!
इण देख दुरंगी दुनिया नैं,
सतवाल़ो माग दिखायां जा!
साचोड़ी देख सुणायां जा।।4
अणसैंधी हुयगी गांम गल़ी हर,
फल़सा जरू होयगा घर-घर।
अणजाण्या लागै उणियारा,
अब भटक भलांई भोदू दर- दर।
विश्वास डोर आ टूट गई है,
प्रीत आंख्यां री खूट गई है।
कल़ियोड़ो गाडो काढण री,
आ बांण अबै तो छूट गई है।
ओ हाथ -हाथ रो बणियो वैरी,
इमरत ई अब सुणियो जैरी!
किण पर तूं विश्वास करेलो!
सिंघां री खाल गधेड़ां पैरी!!
बदल़ गई रंगत आ सारी ,
आय गई आफत आ भारी!
आहेड़ी पग-पग रै छेड़ै,
तूं रखवाल़ काया अब थारी!!
थिर जात्री अणथक रहजै,
वाणी सुर सरसायां जा!
साचोड़ी देख सुणायां जा।।5
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

HISTORY OF JODHPUR : मारवाड़ का संक्षिप्त इतिहास

  Introduction- The history of Jodhpur, a city in the Indian state of Rajasthan, is rich and vibrant, spanning several centuries. From its o...

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