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बुधवार, 31 मई 2017

राष्ट्र-भक्त महाराणा प्रतापसिंह जी

""राष्ट्र-भक्त महाराणा प्रतापसिंह जी""

     विक्रमी संवत 1697 जेष्ठ शुक्ला तृतीया ई. सन 1540 मई 9 रविवार घङी 47/53 आद्रा नक्षत्र में जन्म होने के कारण, ज्योतिषियों ने उस समय यह घौषणा की कि शुभ आद्रा नक्षत्र मे जन्मा बालक (प्रतापसिंह) अपने कुल का नाम उज्जवल करेगा ! यह भविष्यवाणी आगे चलकर अक्षरशः सही निकली ! प्रतापसिंह जी देश की स्वतंत्रता के लिए महाबली सम्राट अकबरसे निरंन्तर तेरह वर्ष जूझते रहे, अकबर की एक भी नहीं चलने दी, उस दीर्घकालीन व घोर संकट के समय नाना प्रकार के कष्टों तथा परेशानियों से जूझते कभी भी अपना संतुलन नही खोया व बङे धैर्य व जीवट के साथ मुगलों की असंख्य वाहिनियों को छापामार लङाई में नांको चने चबवाये व मुगलों को रक्षात्मक एवं छुपकर रहने के लिए मजबूर करदिया, प्रताप ने राष्ट्रप्रेम की मशाल को मजबूति से आजीवन थामे रखा तथा किसी भी प्रकार के झंझावत से विचलित नही हुए !!
      महाराणा प्रताप के लिए दो चारण कवियों की समीक्षा एककी उनके जीवन शौर्य अवस्था की तथा दूसरे उनके अवसान के बाद की बनी अकबर की मनःस्थिति की !!

                       महाराणा परताप के विषय मे
हिंगलाजदानजी कवियारो कह्‌यौ
              !! कवित्त !!
अखिल जहान यूं बखानत हैं आनन तैं,
मेदपाट मंडन परताप बलबंड को !
पाक साक पकत रसोई मे त्थापि तैरो,
पिंड ना तजत रजपूती के घंमड को !
कवि हिंगलाज नवखंडन में नाना विधि,
पंडित पढत पावैं सुजस अखंड को!
जापै भरि दंड,नृप झुडंन के मुंड झुकै,
तापै भुजदंड तेरो मापै बृहमंड को !!

           दुरसाजी आढा कृत मरसिया महाराणा
प्रतातसिंहजी का !
                      !! छप्पय !!
अस लेगो अणदाग, पाघ लेगौ अणनामी !
गो आडा गवङाय, जिकौ बहतो धुरबामी !
नवरोजां न गयो, न गौ आतशां नवल्ली !
न गौ झरोखां हैठ, जैठ दुनियांण दहल्ली !
गहलोत रांण जीति गयो,
                            दसण मूंद रसणा डसी !
निसास मूंक भरिया नयण,
                             तो मृत शाह, प्रतापसी !!

महाराणा प्रताप को साम दाम दण्ड भेदोपाय से येन केन प्रकारेण अपने झण्डे के अधीन में लाने के उपायोन्तर्गत चार पांच संधी प्रस्ताव भी अकबर ने भेजे जिसमे आमेर के कुंवर मान सिंह भी थे उनके बीच नाना प्रकार के संवाद हुये जिनको निरूपित किया है बारहठ केसरी सिंहजी सौन्याणां ने जिसकी एक झलकः.....

प्रताप व मान का संवाद !!
     बारहठ केसरीसिंह सौदा सौन्याणा !!
                    !! प्रताप-चरित्र !!
                        !! कवित्त !!
तनुजा हमारी सोतो क्षत्रिन को ब्याहेगी रू,
मुगलों की संम्पदा पर प्रेम नहीं लावैगी !
भानुकी मरीचि दिश पच्छिम उदै ह्वै तो हू,
जवन जनानखाने बीच नांही आवैगी !
इनकौ तो औसर मिलेगो कहां ऐसो श्रेष्ठ,
जीवित अजीवित ही ये तो जरि जावैगी !
हिन्दुवानी होई के जो हुरम कहावे मान,
पहुमी के पेट में पनाह वही पावैगी !!35!!

महाराणा प्रतापसिंहजीने अपने उसूलों से कभी भी समझौता नहीं किया और संस्कार स्थापना पर सदैव कायम रहे,निरंतर युध्दों मे उऴझना और वह भी उस समय के संसार के सबसे अधिक शक्तिशाली बादशाह के साथ में, उस समय के शासक वर्ग का अकबर को साथ देना तथा प्रतापसिंह जी का प्रतिरोध करना व कुछैक मेवाङ निवासियों का बादशाहसे मिल जाना, इस प्रकार की सभी प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, जबकि कोईभी जगह  सुरक्षित नहीं थी, ऐसी विकट परिस्थितियों में भी महाराणा नें अपने या सामन्तो के परिवार के किसी भी सदस्य को मुगलों के हाथ नहीं पङनें दिया, उलटे मुगलोंके हरम की महिलाओ
को अमरसिंह पकङकर लाये तो महाराणा जी ने समान सहित वापस भेजा ।
                 ऐक बार महाराणा के सरदार शाम के समय भोजन के बाद विश्राम की तैयारी में थे तो अचानक मुगलों का आक्रमण हो गया था, सभी फौजी दस्ते मुकाबला या रणनीती में लग गए, इसआपा धापी में महाराणा की बूढी माताजी जो चलने में असमर्थ थी को भूल गए, अचानक यह बात पानङवा के ठाकुर हरीसिंह को याद आई तो उसने बूढी राजमाता को अपनी पीठ पर बांन्ध कर पहाङों पर चढ गया था, पर मुगलों को परिवार छोङ कभी पशुओं को भी हाथ नहीं लगने दिया । महाराणा प्रताप नें हरीसिंह पानङवा को विशेष अधिकार दिए जो स्वतंत्रता तक उसके वंशजो केअधिकार में चलते आये थे !!
युध्द की स्थिति और चलते युध्द में भी अपनी वीरोचित उदारता से महाराणा कभी भी विमुख नही हुए इसकी साक्षी मेः........

हल्दीघाटी रा समर होवण में ऐक दोय दिनां री ढील ही, दोनों ओर री सेनावां आपरा मौरचा ने कायम कर एक बीजा री जासूसी अर सैनिक तैयारियां री टौह लेवण ने ताखङा तोङ रैयी ही जंगी झूंझार जौधारां रो जोश फङका खावण ने उतावऴो पङरियो हो, राणाजी रा मोरचा तो भाखरां रै भीतर लागियोङा हा नै मानमहिप रा खुलै मैदानी भाग मे हा, लङाई होवणरै दो दिन
पहली मानसिंहजी शिकार खेलण थोङाक सा सुभट साथै लैय पहाङां रै भीतरी भाग मे बङ गिया, राणाजी रा सैनिक जायर राणाजी ने आ कही कि हुकुम इण हूं आछो अवसर कदैई नहीं मिऴेला अबार मानसिंहजी ने मारदेवां का कैद कय लेवां, इण बात पर राणाजी आपरी वीरता री उदारता दिखाय आपरा सुभटांने पालर कैयो क आंपणै औ कायरता रो करतब नीं करणो है आंपा धर्म रा रक्षक हां अर भगवानरा भगत हां जणैई आंपांरी बिजै हुवै है, महाराणाजी री ई उदारतारो बरणाव कवि केसरीसिंहजी सौदा रा
मुख सूं ।
                   !! दोहा !!
अरज करि सुभटन यहां, प्रभु अवसर यहँ पूर ।
कैद करें गहि कूर्म को, ह्वै जो हुकम हजूर ।।
रानकहि अरिदल रहित, अनुचित कर्म अतीव ।
हम रक्षक दृढ धर्म तो, दे हैं विजय दईव ।।
                   !! कवि-कथन !!
त्रियअरू शत्रु एकान्तमें, काहू को मिल जात ।
रहै मुस्कल बहु रिसिनको, रहतसुन्यो मनहाथ।
                 !! मनहर !!
पारासर जैसे मछगंधा को ऐकान्त पाय,
काम-वासना को तृप्त करिवे टरे नहीं ।
द्रोन से अपूर्व वीर चक्रब्यूह बेध काल,
बाल अभिमन्यु कहँ गहिबे मुरे नहीं ।
कर्न के कहे पै कान नेक न किरिटी दीन्हो,
धर्म युध्द ठान भुज धरम धरे नहीं ।
कौन परताप महारान सो अरिन कैद,
करि तो सकै पै क्षमा करि के करे नहीं ।।
                  !! दोहा !!
कउ कहत महारानकी, भई महा यहँ भूल ।
लैते बदला मान तै, हतो समय अनुकूल ।।
पै देखहू यह भूल को, महिपति कितनो मोल ।
सबलछमी निरगर्वधनी, ताहिसके को तोल ।।
        
                       !! मनहर !!
प्रचुर पहारन में हजारन फौज परी,
ताके ढिग कूर्म कर्न मृगया विचारी है ।
शत्रुन निकट असहाय फिरै सून्य हिये,
माननीय कच्छप की कैसी मति मारी है ।
गहिबे की अरज भई त्यौं गहिलोत हू तें,
पातल छमा की तहाँ नजर प्रसारी है ।
मान अविचारता पै कैते अविचारी वारौं,
रान की उदारता पै बली बलिहारी है ।।

धन्य है महाराणा प्रतापसिंहजी जिणानै आपरै उपर अबखा बिखारी भी कोई परवा नीं होवती पण आपरा ऊँचा राजपूति अर मानवता रा ऊंचा उसूल अर काण कायदां ने आपाण पाण निभाय कुऴवट अर रजवट रूखाऴी है !!

बऴ पराक्रम और महाराणा प्रताप सिंहजी !!
हल्दीघाटी के चरम पर चलते युध्द में जब महाराणा मानसिंह पर आक्रमण को अग्रसर हो रहे थे तब बहलोलखाँ नामक इक्का उनको मारने को बढा महाराणा प्रताप ने तलवार को घुमाकर "मंडलाग" मारा जिससे बहलोल खांन अपने सिरके लोहे के टोप जिरह बख्तर शरीर घोङे की काठी और घोङे सहित दो भागों मे विभाजित हो गया जैसा कि महाभारत कालमें भीमसेन ने जरासन्ध को दो भाग किया था दो हाथों से पर महाराणा ने एक ही तलवार वाले हाथ से इक्के को दो भागों में विभक्त कर दिया तथा इसके बाद में कुंवर मान से मुखातिब हुए एवं अपने प्रिय घोङे चेतक को हाथी के सिर पर अगले पांव पर खङा कर मानसिंहजी पर भाले का प्रबल प्रहार किया जो कि प्रतापसिंह जैसै प्रचंड वीर के लिए ही संभव हो सकता है बहलोलखाँ पर किए आक्रमण की पुष्टि में वहीं पर युध्दरत रहे चारण रामांजी सांदू ने बङा ही सुन्दर व सटीक कवित्त सृजन किया है !!
                   !! कवित्त !!
गयंद मान रै मुहर ऊभौ हुतौ दुरत गत,
सिलह पौसां तण जूथ साथै !
तद बही रूक अणचूक पातल तणी,
मुगल बहलोलखाँ तणै माथै !
वीर अवसाण केवाण उजबक बहै,
राण हथवाह दुय राह रटियो !
कट झिलम सीस बगतर बरंग अंग कटै,
कटै पाखर सुरंग तुरंग कटियो !!

महाराणा ने अपने घोङै चेतक को मानसिंह के हाथी पर कुदाया इस कार्य को "फिरत" कहा जाता है और यह बहुत ही बलशाली व सधा हुआ प्रशिक्षित घुङसवार ही कर सकता है जो कि प्रतापसिंहजी जैसै सुभङ के लिए ही संभव व साध्य था !!
(जनरल अमरसिंह चांपावत कानौता ने अपनी दैनिक डायरी में लिखा है किः.....जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह जी के महाराजकुंवरजी सरदारसिंहजी जब बूंदी विवाह के लिए जा रहे थे तब जोधपुर के सरदार ने इसी " फिरत" से अपने अश्व को कुदाकर महाराजकुमार के होदे में चुश्की पकङायी थी जनरल अमरसिंह इस बारात में शामिल थे और इस आंखो देखी हुई घटना का विवरण डायरी में दिया है !!)

विश्व के इतिहास के देदिप्यमान जाज्वल्यमान नक्षत्र महाराणा प्रताप सही मायने में हिदुंवांण सूरज थे आज हिन्दी पंचांग की तिथीनुसार उनके जन्मदिवस पर हम सभी को उन पर गर्व है उनको नमन अभिनंदन व वंदन है !!

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